Wednesday, October 30, 2024

रामजन्म के हेतु अनेका, परम विचित्र एक ते एका


जय सिया राम ..

जय जय सियाराम ….

हम में से अधिकांश लोग रामायण का अध्ययन कर मोक्ष का मार्ग ढूँढते हैं। श्रीराम की लीला का हेतु केवल लीला मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। कभी यह विचार नहीं करते कि उन्होंने मानव का रूप धारण कर हमें शिक्षा देने के लिए ही यह लीला की थी। हम उनके जीवन में घटित घटनाओं का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि अपने तप व त्यागरूप जीवन से उन्होंने राष्ट्र, धर्म, समाज, राजनीति आदि सभी पक्षों पर बहुत सारगर्भित संदेश दिया है। यह ठीक है कि रामनाम का जप करने से कल्याण होगा, किन्तु यदि हम उनके संदेश को जीवन में उतार लें तो हमारा परम कल्याण होगा। फिर, भगवान और भक्त का अंतर समाप्त हो जाएगा। शेष रहेंगे केवल राम। हम स्वयं भी राममय हो जाएंगे।

राक्षसों का संहार निसिचर हीन करों मही भुज उठाय पन कीन्हः आखिर क्यों किसके लिये ??
जिस प्रकार ‘‘रामजन्म के हेतु अनेका, परम विचित्र एक ते एका’’ उसी प्रकार उनके वनवास जाने के अनेक हेतु हैं। प्रत्यक्ष में माँ कैकेई के वरदान ने उन्हें वनवास दिया था। यह वनवास तो वे अयोध्या के बाहर कहीं भी काट लेते। उन्हें चित्रकूट तक जाने की भी आवश्यकता नहीं थी। प्रयाग के आसपास क्या वनों की कमी थी। किन्तु, वे चित्रकूट गये, जहाँ राक्षसों का आतंक आरम्भ हो चुका था। उसके बाद भी अत्रि आश्रम होते हुए उन्होंने उस क्षेत्र में ऋषियों के लिए आतंक के पर्याय विराध का वध किया। शरभंग जी तथा सुतीक्ष्ण मुनि से मिले फिर 10 वर्ष तक दण्डक-वन में भ्रमण करते हुए उन्होंने ‘‘निसिचर हीन करों मही, भुज उठाय पन कीन्ह।’’ की भीष्म प्रतिज्ञा कर अपने वनवास की वास्तविक मंशा की घोषणा की थी।

वनवास का प्रथम संदेशः राज्यलिप्सा व अधिकार का त्याग उच्च आदर्शों की स्थापना

आधुनिक जगत में हम पाते हैं कि मनुष्य राज्य व सत्ता के लिए सभी मानवीय मूल्यों को पैरों तले रौंद रहा है। भाई-भाई की हत्या करने को तत्पर है। अधिकारों के लिए जगत में भयंकर हाहाकार मचा है। व्यवहारिक व मानवीय दृष्टिकोण से विचार करें तो उनके वनवास का प्रथम संदेष मिलता है राज्यलिप्सा व
अधिकारों का त्याग कर अनाषक्ति के उच्च आदर्ष की स्थापना करना।

दूसरा संदेशः धर्म राज्य अर्थात राष्ट्ऱ की स्थापना
आज हम राष्ट्र से अधिक महत्त्व राज्य को दे रहे हैं। स्वयं को धर्म-निरपेक्ष सिद्ध करने के लिए क्या-क्या उल-जलूल नहीं कह रहे। धर्म और पंथ के अर्थों का घालमेल कर धर्म के अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं। हम भूलते जा रहे हैं कि धर्म के बिना राजनीति वेश्या बनकर रह जाती है। हम इसी विचारधारा के दुष्परिणामों को भुगत रहे हैं। किन्तु, सुधरना नहीं चाहते। श्रीराम के वनवास जाने का दूसरा कारण था राष्ट्र और धर्म की महत्ता को राज्य के ऊपर स्थापित करना।

तीसरा संदेशः समाज में समरसता बनाना
उनका तीसरा उददेश्य था समाज में समरसता का, मानव जाति आज फिर वर्गों में विभाजित हो रही है। जाति के नाम पर समरसता की बात नहीं, केवल वर्गसंघर्षों को बढ़ावा दिया जा रहा है। बदला लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। उस काल में भी यह स्थिति रही होगी। तभी तो श्रीराम ने वनवास में निषाद जैसी समाज की मुख्य धारा से कुछ बिछुड़ी सी जाति को गले लगाकर उसे समानता के आधार पर समाज से जोड़ा। वनवासी जीवन को नगर जीवन से निम्नतर मानने की प्रवृत्ति पर विराम लगाने के लिए-‘पिता दीन्ह मोहि कानन राजू’ कहते हुए वनवासी जीवन को गरिमा प्रदान की।

चतुर्थ संदेशः माया और छल बल पर आधारित आसुरी शक्तियों का नाश
भारतभूमि सदा सर्वदा से ही यज्ञ व तप की भूमि रही है। फिर भी समय-समय पर आसुरी शक्तियों ने इसे दूषित करने का प्रयास किया है श्रीराम ने ‘निसिचर हीन करों महीं, भुज उठाय पन कीन्ह’ की घोषणा कर
भारतीय संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन के उपाय किये। संस्कृति के अधिष्ठान को ध्वस्त करने की दुष्वृत्ति वाली आसुरी शक्तियों का कठोरतापूर्वक दमन किया। यह था उनके वनवास का चतुर्थ हेतु।

पचम संदेशः समाज की बिखरी शक्ति को एक सूत्र में बाँधकर उन्हें एक और एक ग्यारह में बदलना
उनके वनवास का पंचम हेतु था समाज की बिखरी शक्ति को एक सूत्र में बाँधकर उनमें एक और एक ग्यारह कर दिखाना तथा उनमें आत्मविष्वास का संचार करना। तभी तो दुर्गम वन-गिरिप्रदेशों में अपनी संयुक्त शक्ति से अपरिचित वानर, ऋक्ष, गिद्ध इत्यादि वैदिक संस्कृति की अनुषांगी जातियों को एक उद्देश्य प्रदान कर एकताबद्ध किया, जिससे उन्होंने तत्कालीन विश्व की अजेय, आततायी राक्षस प्रवृत्ति का समूल नाश किया व वैदिक संस्कृति की सुरक्षा में उपयोगी व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

छठा संदेशः तपस्वी ऋषि मुनियों से उपदेश ग्रहण करना और राज्य कल्याण में इनका अनुपालन
वनवास का षष्ठ हेतु था तपस्वी ऋषि मुनियों के गहन वनों में स्थित आश्रमों में जाकर उनके दर्षन कर विनम्रता से उपदेष ग्रहण करना। तप, त्याग जैसे उच्च जीवनमूल्यों और ज्ञान को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्रदान करना। इसी कारण वनवास की पूरी यात्रा ऋषियों के निर्देशानुसार ही रही।

सातवां संदेशः नारी जाति के सम्मान को कलंकित करनेवालों का दमन
राक्षस प्रवृत्ति आधुनिक काल की तरह उस काल में भी नारी जाति को सर्वाधिक पीड़ा देती थी। रावण जहाँ धन, हथियार व वाहन लूटता था, वहीं सभी जातियों की स्त्रियों को भी लूटना अपना अधिकार समझता था और इस कुकृत्य को अपनी वीरता बताता था। श्रीराम के वन-गमन का सप्तम हेतु था, नारी जाति के सम्मान को कलंकित करनेवालों का दमन करने के लिए पराक्रम की पराकाष्ठा करना।
श्रीराम के वनगमन के कारणों को सूचीबद्ध करना संभव भी नहीं है। अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारण और भी हैं। विद्वान अपनी-अपनी मति के अनुसार वर्णन करते हैं। संक्षेप में हम भी ‘‘राम जन्म के हेतु अनेका’’ कह कर बात समाप्त करते हैं।

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